Before the commencement of the Kurukhetra war, the kaurava camp decided to send one last ambassador to the pandava camp. After the failure of peace talks and diplomatic meetings from both sides, war was the only way out to resolve the conflict.
Pandavas had sent multiple ambassadors to Hastinapur asking for peace and reconciliation but all of those efforts went in vain. The ambassadors were humiliated in the Kuru court, the last Pandava ambassador Vasudev Krishna was humiliated and attempt was made to captivate him.
Duryodhana, Karna, Dusshashana and Shakuni – the four musketeers decided to send one last messenger to the Pandava camp before the war. The reasoning behind sending this messenger was not to ask for a truce or discuss a mutual treaty.
The objective of sending this messenger was to let the Pandavas know Duryodhana’s point of view and why he thinks Pandavas do not deserve the kingdom and must accept slavery in the kingdom of Virat as their destiny. For this purpose, the Kauravas chose “Ulluk”, the son of Shakuni to carry the message to Yudhishira.
The following message by Ulluk clearly paints Duryodhana’s point of view
Pandavas – thou are cowards. You lost your brothers, your kingdom and even your wife in the game of dice. Your wife was dragged to the court and you kept silent and did not protest.
You spent twleve years in exile and one year in incognito as slaves. Acording to the pact, you had to go back to twelve years of exile because I had broken your incognito before it got over. But instead, you have come to ask for the kingdom. Such shameless cowards.
If you really cared about your own wife, you would have attacked Hastinapura. But No, you chose to ask for the kingdom of Indraprastha and negotiated the deal with 5 villages. To you, getting the kingdom is more important than avenging the insult of your own wife. You are greedy for the throne. A man who cannot protect the honor of his wife is not worthy enough to become a king and protect its people.
Our guru Dronacharya has always said that the army which has the spear of Yudhisthira, the mace of Bheema, the arrows of Arjuna and the swords of Nakula and Sahadeva, cannot be defeated. My question is – the day Draupadi was disrobed in the Kuru court, Arjuna had his Gandiva and Bheema had his mace with them. What happened to your warrior code on that day? Fact is that you are shamelss, impotent men.
I had won Draupadi in the game of Dice. I had complete ownership of her. Had she not insulted my father and my friend Karna, I would not have insulted her back. I had to punish her and and I did so by crushing her ego in full view. However, look at you, how shamelss a man can be? Instead of protecting the honor of their wife, they kept silent and did not attack or even try to prevent the disrobing incident. After thirteen years, here they are asking for five villages instead of avenging the insult of their wife in the battlefield.
Forget the war Yudhisthira, just stay where you are. Go back to the kingdom of Virat and live the life of a slave, because you are destined to lead the life of a slave. And Arjuna, instead of using your tongue, try to use your bows and the arrows in your quiver. Blinded by false praise, no man can achieve real glory. I have robbed your honor in front of your own eyes and you could do nothing about it. You are a shameless coward, I have ruled your kingdom for thirteen years and I will be the ruler in future as well. Hence O yudhisthira, forget the war and accept the life of a slave.
Hindi translation of Duryodhana’s message
तुम द्युत में अपना राज्य अपने भाई और अपनी पत्नी तक को हर चुके थे। तुम्हारी पत्नी खींच कर राजसभा में लायी गयी और तुम कायरो की भांति यह अपमान सहन कर गए। उसके बाद तुम बारह वर्षो के वनवास में रहे और अज्ञातवास का एक वर्ष तुमने विराट राज्य में दास जैसा व्यतीत किया । तुम कायर हो तो फिर किस मुँह से इंद्रप्रस्थ मांग रहे हो ? पण के अनुसार तुम्हे फिर से बारह वर्षो के वनवास को चला जाना चाहिए था इसलिए पहले बारह वर्षो के वनवास को जाओ और फिर हमारे पास आकर पांच गाओं मांग लेना हम तुम्हे भिक्षा में पांच गांव तो क्या इंद्रप्रस्थ भी दे देंगे ।
धर्मात्मा होने का नाटक छोरो युधिष्ठिर । तुम्हारी और से वासुदेव कृष्ण ने तुम्हारे लिए पांच गांव मांगे थे लेकिन मुझे वह स्वीकार नहीं क्यूंकि तुम कायर और अधर्मी हो । तुम्हे अपनी पत्नी के सम्मान से अधिक राजमुकुट से प्रेम है । यदि ऐसा न होता तो तुम शांति दूत न भेजते , तुम हस्तिनापुर पर आक्रमण करते । तुम्हारा पहला कर्त्तव्य प्रतिशोध ही था पर तुमने अपनी पत्नी के अपमान के प्रतिशोध के बदले राजमुकुट को मांगना उचित समझा । हे युधिष्ठिर तुम तो राज्य के लोभी निकले । जो व्यक्ति अपने पत्नी की मर्यादा की रक्षा नहीं कर सकता वह क्षत्रिय तो क्या मनुष्य मात्र नहीं है
हमारे गुरु द्रोण ने बचपन से यह कहा है की जिस सेना में युधिष्ठिर का भाला हो भीम की गदा हो , अर्जुन का धनुष हो और नकुल सहदेव के खरग हो , उस सेना तो इस त्रिलोक में कोई पराजय नहीं कर सकता। मैं तुमसे यह पूछता हूँ – जिस दिन द्रौपदी का वस्त्रहरण हो रहा था तुम्हारा गांडीव तुम्हारे साथ था। और भीमसेन से पूछो उस दिन उसकी गदा कहा थी ? तुम लोग अपनी पत्नी का अपमान देखते रह गए ?? तुम लोग कायर और नपुंसक हो । उस दिन मेरी जगह कोई और भी होता तब भी तुम अपनी पत्नी की मर्यादा को बचाने का प्रयत्न नहीं करते
द्युत में अपनी पत्नी द्रौपदी को तुमने दाव पर लगाया था मैंने नहीं । द्युत हार जाने के बाद द्रौपदी मेरी दासी बन चुकी थी उस पर मेरा संपूर्ण अधिकार सिद्ध था। अगर उसने मेरे पिताश्री का अपमान न किया होता अगर उसने मेरे मित्र अंगराज कर्ण का अपमान नहीं किया होता तो कदाचित उस दिन मैंने उसकी मर्यादा को भंग करने का प्रयत्न भी नहीं किया होता। मुझे उसको दंड देना ही था और उसके अभिमान और अहंकार के महल को चकनाचूर करके मैंने अपने पिताश्री और परम मित्र कर्ण के अपमान का प्रतिशोध लिया है ।
लेकिन तुम? तुम में से कोई भी उस दिन अपनी पत्नी के सम्मान की रक्षा के लिए आगे नहीं बढ़ा। जो पुरुष अपनी स्त्री के मर्यादा की रक्षा नहीं कर सकता वह देश और प्रजा की रक्षा क्या करेगा ? तुम कायर और निर्र्लाज तो हो ही उसके साथ साथ तुम लोभी और कपटी भी हो । अपने स्त्री के अपमान का प्रतिशोध लेने के बजाय तुम हाथ फैलाये पांच गांव मांगने चले आये ?
सन्देश यह है की युद्ध को ध्यान से निकाल दो और विराट राज्य के दासत्व में अपना जीवन व्यतीत कर। और कुंती पुत्र अर्जुन – जिव्वा नहीं बाण चलाओ।यदि इस जगत में अपनी झूठी प्रशंसा से सब कार्य सीध हो जाते , तो कोई दरिद्र नहीं होता। मैंने तुम्हारे सामने तुम्हारे मर्यादा का हरण किया और तुम कुछ नहीं कर सके । मैंने तेरह वर्षो से तुम्हारे राज्य को भोगा है और आगे भी मैं ही उसे भोगूँगा ।